"पृथ्वी पुकार रही है: अब भी समय है सँभलने का!"

 🌿  "पृथ्वी पुकार रही है: अब भी समय है सँभलने का!"🌍

"धरती का दर्द, उम्मीद की किरण"


धरा की सांसें थमी हुई हैं,
धुंआ-धुंआ सी गगन तले,
नदियाँ रोती, पर्वत टूटे,
हरियाली खोई जल के छलें।

बर्फ पिघलती, समुंदर बढ़ता,
सूखे खेतों की चीत्कार,
प्लास्टिक से घुटता जीवन,
प्रकृति मांग रही उपकार।

वनों के सन्नाटे बोल उठे,
पक्षी पूछें – “घर कब मिलेगा?”
प्रदूषण की इस रेलगाड़ी में,
भविष्य कहीं दूर चला गया।

कोई देखे, कोई सुने तो,
धरती माँ की करुणा पुकार,
नव पुनर्जागरण की बेला है,
अब तो संभालो संसार।

2025 में वक़्त नहीं है,
केवल भाषण, वादों का,
अब ज़रूरत है उस मानव की,
जो बने रक्षक बादलों का।

हर बीज जो धरती में बोए,
वह आशा का एक रंग हो,
हर कदम जो हरियाली लाए,
वो मानवता का संग हो।

चलो उठें हम सब मिलकर,
नई सदी का दीप जलाएँ,
धरती को फिर से जीने दें,
आओ पृथ्वी दिवस मनाएँ।

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