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2025 का युद्ध: पहलगाम की पुकार 

(एक देशभक्त कविता)


पहलगाम की वादी में गूँजी जो चीख,
धरती कांपी, फटी गगन की सीख।
2025 की सुबह थी वो स्याह,
जब शांति को चीर गया जंग का राह।

आकाश में धुआँ, ज़मीन पे लहू,
हर ओर था आतंक का गरुड़ रूप बहु।
फिर जागा शेर वो तिरंगे का लाल,
जिसने ललकारा — अब होगा सवाल।
“कश्मीर हमारा है, रहेगा सदा,
ना बँटेगा अब, ये है अंतिम वादा।”
सीना ताने जो निकले वीर जवान,
बोल उठी वादी — “जय हिंद महान!”

तोपें गरजी, फौज चली सरहद पार,
पाक को मिला उसका घमंड का उपहार।

घुसपैठियों को सिखा दिया पाठ,
सीमा पर गूँजा भारत का नाद।
इक झटके में फहराया तिरंगा दुर्ग,
दुश्मन समझा अब नहीं कोई भ्रम।
जन-जन में जागा फिर रण का रंग,
हर दिल में गूँजी आज़ादी की संग।

माँ भारती ने पहना केसरिया ताज,
कहा—"मेरे बेटों ने निभाया आज!"
पाहलगाम बोला — “अब शांति मिले,
वीरों की कुर्बानी कभी ना फिसले।”

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