राजा और मूर्तिकार – एक प्रेरणादायक कहानी






बहुत समय पहले की बात है, एक समृद्ध राज्य में एक न्यायप्रिय राजा शासन करता था। वह कला और शिल्प का बहुत बड़ा प्रेमी था। राज्य के हर कोने से कलाकार आते और अपने हुनर का प्रदर्शन करते। लेकिन एक दिन राजा ने एक घोषणा की –

"जो भी मूर्तिकार मुझे ऐसी मूर्ति बनाएगा जो न सिर्फ दिखने में जीवंत हो, बल्कि उसमें भावना भी दिखे — उसे मैं अपना राजकीय शिल्पाचार्य नियुक्त करूंगा।"

यह सुनते ही पूरे राज्य में हलचल मच गई। हर मूर्तिकार अपने औजार लेकर महल की ओर चल पड़ा। कुछ ही दिनों में महल का बगीचा सुंदर मूर्तियों से भर गया – कोई मूर्ति युद्ध के दृश्य दिखा रही थी, कोई नृत्य करती नारी को, कोई भगवान की भव्य प्रतिमा।

राजा हर मूर्ति को ध्यान से देखता, सराहता, लेकिन किसी में उसे भावना नहीं दिखती।

इन्हीं दिनों एक वृद्ध मूर्तिकार, जो पहाड़ों की तलहटी में एकांत जीवन बिता रहा था, राजा की घोषणा सुनकर राजधानी आया। उसके कपड़े साधारण थे, शरीर दुबला, लेकिन आँखों में चमक थी। वह चुपचाप एक कोने में बैठकर अपना काम करने लगा।

तीन दिन बाद वह राजा के पास पहुंचा और कहा –
"महाराज, मेरी मूर्ति तैयार है। आप देख सकते हैं।"

राजा उस मूर्ति को देखकर कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गया। वह एक वृद्ध स्त्री की मूर्ति थी, जो एक बच्चे को दूध पिला रही थी। चेहरे पर करुणा, आँखों में ममता और होठों पर संतोष की मुस्कान थी।

राजा ने धीरे से पूछा –
"तुमने यह भावना कैसे उकेरी? इसमें तो आत्मा बसती है!"

मूर्तिकार मुस्कराया और बोला –
"महाराज, मैंने पत्थर को नहीं, अपने अनुभवों को तराशा है। वह स्त्री मेरी माँ है, और वह बच्चा मैं। मैंने हर रेखा में उसका प्यार डाला है।"

राजा भावुक हो गया। उसने तुरंत उसे राजकीय शिल्पाचार्य नियुक्त कर दिया और कहा –
"कला वह नहीं जो केवल आँखों को भाए, सच्ची कला वह है जो आत्मा को छू जाए।"


सीख (Moral of the Story):

भावना के बिना कला अधूरी है। जीवन के अनुभव जब कला में ढलते हैं, तब वह दिलों को छू जाती है।

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